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एक राजा व राज्य के लिए झण्डा विशेष महत्व रखता है व यदि देवताओं के यज्ञों में उनके झण्डे को ना लगाया जाये तब तक यज्ञ का फल प्राप्त नहीं होता. वहीं ये भी समझना ज़रूरी है की ध्वज और पताका अलग-अलग होते हैं. दोनों को ही हम झंडा मान लेते हैं या सामान्यतः बोलते ही परन्तु पताका त्रिकोणाकार होती है जबकि ध्वजा चतुष्कोणीय। राष्ट के चतुष्कोणीय झण्डा प्रयोग होता है.

प्रत्येक हिन्दू देवी या देवता अपने साथ अस्त्र-शस्त्र तो रखते ही हैं लेकिन उनकी पहचान उनका एक ध्वज ही होता है। सही रूप में ध्वज उनकी पहचान का प्रतीक माना गया है. तमाम सारे युद्धों में ध्वजों का प्रयोग भी ग्रन्थों में वर्णित है।

ऋगवेद संहिता के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी ध्वज प्रयोग का उल्लेख है। इनके आकार अनुसार कई नाम थे जैसे कि अक्रः. कृतध्वजः, केतु, बृहतकेतु, सहस्त्रकेतु आदि। ध्वज, नगाड़े, दुन्दभि आदि सैन्य गरिमा के चिन्ह माने जाते थे। महाभारत में प्रत्येक महारथी और रथी के पास उनका निजी ध्वज और शंखनाद था जो कि सेना नायक की पहचान के प्रतीक थे।

हमें भी अपना ध्वज व भाग्य में जो ग्रह मौजुद हैं उसके अनुसार; अर्थात पराक्रम व ख्याति हैतू व पंचम या पंचमेश के अनुसार ध्वज व इष्ट के लिए विचार करना चाहिए।

तांत्रिक युद्धों में ध्वज का प्रयोग तांत्रिक लोग अपनीं विजयी हैतू करते हैं

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हर दिन लोग मंदिर जाकर भगवान की पूजा करते हैं. लेकिन जब किसी कारण से मंदिर नहीं जा पाते हैं तो शास्त्रों में उनके लिए भी उपाय बताया गया है कि मंदिर ना जाने से भी मंदिर जाने का पुण्य मिलता है। माना जाता है कि मंदिर के अंदर नहीं जा पा रहे हैं तो बाहर से ही मंदिर के शिखर को प्रणाम कर सकते हैं। माना जाता है कि शिखर दर्शन से भी उतना पुण्य मिलता है जितना मंदिर में प्रतिमा के दर्शन करने से मिलता है। शास्त्रों में कई जगह लिखा गया है कि शिखर दर्शनम पाप नाशम। इसका अर्थ है कि शिखर के दर्शन कर लेने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।

1.ब्रह्मा की ध्वजा: हंस ध्वजा

2.विष्णु की ध्वजा: गरुढ़ ध्वजा

3.महेश की ध्वजा: वृषभ ध्वजा

4.दुर्गा की ध्वजा: सिंह ध्वजा

5.गणेश की ध्वजा: कुम्भ ध्वजा एवं मूषक ध्वजा

6.कार्तिकेय की ध्वजा: मयूर ध्वजा

7.वरुणदेव की ध्वजा: मकर ध्वजा

8.अग्निदेव की ध्वजा: धूम ध्वजा

9.कामदेव की ध्वजा: मकर (मगरमच्छ नहीं) ध्वजा

10.इंद्रदेव की ध्वजा: एरावत और वैजयंति ध्वजा

11.यमराज की ध्वजा: भैंसा ध्वजा

12. शत्रुओं के सघारं हेतु भगवती बगलामुखी का पीला ध्वज पूजन कर व लगाने से शत्रुओं का अत्यधिक नुक़सान होता है। कुछेक ह्लीं वीज मत्रं लिखते तो कुछेक बगुला का चित्र तो कुछेक मात्र हल्दी के छींटे मारकर लगाते हैं।

14. अर्ध चंद्र : भारत में जगन्नाथ मंदिर के ध्वज सहित शिव और दुर्गा के कई मंदिरों पर अर्ध चंद्र अंकित ध्वज फहराया जाता है। यह अर्द्धचन्द्र शाक्त, शैव और चन्द्रवंशियों के पंथ का प्रतीक चिह्न है। मध्य एशिया में यह मध्य एशियाई जाति के लोगों के ध्वज पर भी अर्द्धचन्द्र बना होता था। चंगेज खान के झंडे पर अर्द्धचन्द्र होता था। इस्लाम का प्रतीक चिह्न है अर्द्धचन्द्र। अर्धचंद्र अंकित ध्वज पर होने का अपना ही एक अलग इतिहास है।

15. नाग ध्वज: बहुत से शैव और नाग मंदिरों पर नाग ध्वज होता है जिस पर नाग का चिह्न अंकित रहता है।

16. सूर्य: भगवान सूर्य (विवास्वान) वंशज को सूर्यवं‍शी कहा गया है। सूर्यवंशियों के ध्वज पर सूर्य का चिन्ह अंकित होता है।

17. ओम और स्वस्तिक: केसरिया रंग के हिन्दू ध्वज पर ओम और स्वस्तिक का चिन्ह होता है।

रामायण और महाभारत में ध्वज : अर्जुन की ध्वजा पर हनुमान का चित्र अंकित था। कृपाचार्य की ध्वजा पर सांड, मद्रराज की ध्वजा पर हल, अंगराज वृषसेन की ध्वजा पर मोर और सिंधुराज जयद्रथ के झंडे पर वराह की छवि अंकित थी। गुरू द्रोणाचार्य के ध्वज पर सौवर्ण वेदी का चित्र था तो घटोत्कच के ध्वज पर गिद्ध विराजमान था। दुर्योधन के झंडे पर रत्नों से बना हाथी था जिसमें अनेक घंटियां लगी हुई थीं। इस तरह के झंडे को जयन्ती ध्वज कहा जाता था। श्रीकृष्ण के झंडे पर गरूड़ अंकित था। बलराम के झंडे पर ताल वृक्ष की छवि अंकित होने से तालध्वज कहलाता था।

महाभारत में शाल्व के शासक अष्टमंगला ध्वज रखते थे। महीपति की ध्वजाओं पर स्वर्ण, रजत एवं ताम्र धातुओं से बने कलश आदि चित्रित रहते थे। इनकी एक ध्वजा सर्वसिद्धिदा कहलाती थी। इस ध्वजा पर रत्नजडित घडियाल के चार जबड़े अंकित होते थे। एक अन्य प्राचीन ग्रंथ में लिखा है कि झंडे के ऊपर बाज, वज्र, मृग, छाग, प्रासाद, कलश, कूर्म, नीलोत्पल, शंख, सर्प और सिंह की छवियां अंकित होनी चाहिए।

वैदिक एवं पौराणिक ग्रंथों के अनुसार ऋग्वेद काल में धूमकेतु झंडे का खूब प्रयोग होता था। वाल्मीकि रामायण में भी शहर, शिविर, रथयात्रा और रण क्षेत्र के बारे में झंडे का उल्लेख मिलता है। निषादराज गुह की नौकाओं पर स्वस्तिक ध्वज लहराता था। महाराज जनक का सीरध्वज और इनके भाई के पास कुषध्वज था। कोविदार झंडे कौशल साम्राज्य का था।

ध्वजों के प्रकार: रणभूमि में अवसर के अनुकूल आठ प्रकार के झंड़ों का प्रयोग होता था। ये झंडे थे- जय, विजय, भीम, चपल, वैजयन्तिक, दीर्घ, विषाल और लोल। ये सभी झंडे संकेत के सहारे सूचना देने वाले होते थे। विशाल झंडा क्रांतिकारी युद्ध का तथा लोल झंडा भयंकर मार-काट का सूचक था।

  • जय: जय झंडा सबसे हल्का तथा रक्त वर्ण का होता था। यह विजय का सूचक माना जाता है। इसका दंड पांच हाथ लम्बा होता है।
  • विजय : विजय ध्वज की लम्बाई छह हाथ होती है। श्वेत वर्ण का यह ध्वज पूर्ण विजय के अवसर पर फहराया जाता था।
  • भीम : अरुण वर्ण का भीम ध्वज सात हाथ लम्बा होता था और लोमहर्षण युद्ध के अवसर पर इसे फहराया जाता था।
  • चपल : चपल ध्वज पीत वर्ण का होता था तथा आठ हाथ लम्बा होता है। विजय और हार के बीच जब द्वन्द्व चलता था, उस समय इसी चपल ध्वज के माध्यम से सेनापति को युद्ध-गति की सूचना दी जाती थी।
  • वैजयन्तिक : वैजयन्तिक ध्वज नौ हाथ लम्बा तथा विविध रंगों का होता था।
  • दीर्घ : दीर्घ ध्वज की लम्बाई दस हाथ होती है। यह नीले रंग का होता है। युद्ध का परिणाम जब शीघ्र ज्ञात नहीं हो सकता था तो उस समय यही झंडा प्रयुक्त होता है।
  • विशाल : विशाल ध्वज ग्यारह हाथ लम्बा और धारीवाल होता है।
  • लोल : लोल झंडा बारह हाथ लम्बा और कृष्ण वर्ण का होता है।

मंदिर के शिखर पर लगाया जाता है ध्वज और कलश, जानें क्या है कारण

माना जाता है कि जब भी मंदिर के बाहर से गुजरें तो ध्वज और कलश को प्रणाम जरुर करना चाहिए। शास्त्रो में मंदिर जाए बिना कैसे पुण्य पाया जाए ये भी बताया गया है।

मंदिर एक ऐसा स्थान हैं जहां पर जप साधना करने से सकारात्मक जीवन से धरती में एक विशेष दैवीय ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है। शास्त्रों में ऐसा माना जाता है कि शब्द ध्वनि से किसी भी स्थान पर ऊर्जा उत्पन्न की जाती है जिसे प्राण कहा जाता है। इष्ट को साकार रुप देने के बाद ही उनके सामने किया गए पूजन से पूरा क्षेत्र दिव्य ऊर्जा से भर जाता है। इसी को मूर्ति में प्राण-प्रतिष्ठा करना कहा जाता है और इसके बाद आम जन प्रतिमा से ऊर्जा महसूस करते हैं। इसी को मंदिर कहा जाता है। ऐसा माना जाता है कि मंदिर में लोगों की साधना और सात्विक व्यवहार ही ऊर्जा उत्पन्न करता है।

पितृ शांति हेतु पीपल पर झंडा

लगातार धन के लिए प्रयास किया जाए, सफलता नहीं मिलने पर व बारम्बार जरूरी काम अटक जाने पर पितृों की कृपा हैतू पीपल पर ध्वज लगाने का बड़ा महत्व है। शुक्ल पक्ष के पहले शुक्रवार को सफेद कपडे़ के झंडे को पीपल के वृक्ष पर लगाने से लाभ होता है। झंडे को इस तरह लगाए की लगातार हवा से वह उड़ता

जन्म पत्रिका में केतु ख़राब होने पर ध्वज का प्रयोग करे व केतु जिस राशि में हो विचार कर रंग का व ईष्ट का ध्वज लगाने से शांति होगी केतु का दुष्प्रभाव समाप्त हो जाता है,

आज जिस तराह से महामारी से हम लड़ रहे हैं अत: ध्वज ज़रूर ही अपनी छत पर या मंदिर में लगाने से इस महामारी से बचाव के आसार हैं। केतु संक्रमण व महामारी का कारक ग्रह हैं अपितु केतु का उपाय सार्थक है।

उस युग से इस युग तक ध्वज अर्थात झण्डे का ध्वज के सम्मान के लिये ग्राम, राज्य, नागरिक, सेना व अन्य पदाधिकारी; सभी झण्डे के लिये मर मिटने को तैयार रहते हैं अत: ध्वज का प्रयोग हम अपने जीवन में विभिन्न उद्देश्यों हेतू करना चाहिए

तांत्रिक साघनाऔ में व इष्ट की प्रसन्नता हैतू झण्डे का अत: ध्वज का प्रयोग श्रेष्ठ हैं। आचार्य