देश की राजधानी दिल्ली और उससे लगा एक गांव, कंझावला-कराला, जिसमे स्तिथ है रूपाली एनक्लेव कॉलोनी और उस कॉलोनी में विराजमान हैं देवी बगलामुखी अपने मंदिर बगलामुखी साधना पीठ में।
कंझावला-कराला गाँव का इतिहास में वैदिक काल से ही बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यहां स्थित था एक आधा-अधूरा और पुराना मंदिर जो कई किवदंती, मनगढ़ंत कहानियों को अपने में समेटे हुए था। मंदिर में एक सवा सात फुट का शिलाखंड था। इस शिलाखंड को लेकर एक सबसे बड़ी किवदंती के अनुसार यह पुराना मंदिर दैत्यगुरु आचार्य शुक्राचार्य का था। इस मंदिर में स्तिथ शिलाखंड पर बैठकर दैत्यगुरु आचार्य शुक्राचार्य ने घोर तपस्या कर ब्रह्मास्त्र कि प्राप्ति की। तत्पश्चात, उसी ब्रह्मास्त्र के ज्ञान को शुक्राचार्य ने दैत्यों को दिया था ताकि वे सुर-असुर युद्ध में अजर-अमर रह सकें।
खैर, यह मात्र एक किवदंती थी जो गांव के लोगों द्वारा बताई जाती रही। फिर धीरे-धीरे समय बीतता गया और कंझावला का शहरीकरण प्रारंभ होने लगा। कंझावला से लगे इलाके मुंडका, रानी खेरा, बहादुरगढ़ और कई इलाके धीरे-धीरे इंडस्ट्रियल एरिया बनते जा रहे थे और फिर शुरुआत हुई उस इलाके रिहायशीकरण की।
जिस समय लैंड-कॉलोनाइजरों ने यहाँ कॉलोनी का विकास शुरू किया तो उन्होंने भी इस पुराने शिलाखंड वाले मंदिर के लिए हर ओर से जगह निकाल दी। लोगों ने पुनर्निर्माण की भावना से मंदिर को बनाने की तमाम कोशिशें कीं लेकिन किसी ना किसी अनहोनी घटना के घटने से वे असफल ही रहे और फिर उन्होंने उस विचार को ही छोड़ दिया। उस मंदिर को लेकर लोगों के मन में एक अपशकुन घर बना चुका था। लोग उस मंदिर का नाम लेना तो दूर उसके बारे में सोचने से भी डरने लगे थे।
लेकिन कहा जाता है ना कि अगर किसी कार्य, किसी सोच के पीछे जन-कल्याण की भावना हो तो ईश्वरीय शक्तियां भी उस कार्य को संपन्न कराने में आपके साथ लग जाती हैं। कुछ संपर्कों के द्वारा यह बात अतुल्य नाथ जी की पास पहुंची। लोगों ने उन्हें दैत्यराज शुक्राचार्य और उस शिलाखंड सम्बंधित वहां प्रचलित किवदंतियां के बारे में विस्तार से बताया।
गुरु महाराज अतुल नाथ जी ने सर्वप्रथम इस बात को हास्यास्पद माना, परंतु लोगों के अटूट विश्वास ने गुरु जी को भी थोड़ा संदेह में डाल दिया। गुरु जी भी उस जगह को देखने के लिए इच्छुक हो गए।समय और दिन तय हुआ और तब गुरु जी उस जगह को देखने की इच्छा लिए कंझावला पहुंचे।
मंदिर परिसर में पहुंचकर गुरु महाराज अतुल नाथ जी ने जगह का निरीक्षण किया और वे उसी शिलाखंड पर बैठ कर ध्यान करने लगे। जब गुरु जी को जगह की अनुभूति हुई तो थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। कुछ तो था वहां पर लेकिन क्या? इसका जिक्र गुरुजी ने किसी से नहीं किया। परंतु एक घोषणा जरूर कर डाली की यहाँ माता बगलामुखी के मंदिर का निर्माण होगा। लैंड-कॉलोनाइजर ने भी अपनी सहमति से वह जगह गुरु जी के मंदिर बनवाने के लिए उपहार स्वरूप दे डाली।
परंतु दान देते समय कॉलोनाइजरओं ने अजीब सी शर्तें भी रख दी थीं। एक तो यह कि वह मंदिर के निर्माण में पैसा नहीं देंगे और दूसरा यह कि 32 दिन के अंदर ही मंदिर बनवा दिया जाए और तीसरी यह की कच्ची कॉलोनी को किसी तरह को कोई नुकशान भी नहीं होना चाहिए। 32 दिनों में मंदिर का बनकर तैयार होना एक परीक्षा की घड़ी थी। गुरुदेव को भी थोड़ा आश्चर्य हुआ और वह एक गंभीर सोच में पड़ गए। यह उनके लिए एक परीक्षण की घड़ी थी किंतु गुरुदेव ने थोड़ी देर के मौन के बाद अपना निर्णय सुना डाला। “मंदिर इन ही शर्तों पर ही बनेगा।“ गुरुदेव ने हां बोल दी और अपने इस निर्णय को परमेश्वर का आदेश समझा।
फिर शुरू हुआ मंदिर निर्माण का कार्य। सबसे पहले उस पीली सवा 7 फुट की शीला को कटवा कर जयपुर मूर्ति निर्माण के लिए भेजा गया। तय हुआ कि मां बगलामुखी की मूर्ति उसी पत्थर से ही बनवाई जाएगी। उस भाटा पत्थर (पत्थर का एक प्रकार) के शिलाखंड को देख कर कोई मूर्ति गढ़ने वाला कारीगर मूर्ति बनाने के लिए तैयार नहीं हुआ और जिन कारीगरों ने उसे तराशने की कोशिश भी की तो उनके साथ अनहोनी घटनाएं घटने लगीं।
उधर गुरुदेव ने मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ कर दिया था। जिस दिन मंदिर की छत की शटरिंग खोली गई तो गुंबद (शिखर) धड़-धड़ा कर नीचे गिर गया। लोग बातें करने लगे कि नकली सीमेंट लगायी लगाई गई थी। गुम्बद निर्माण फिर से शुरू हुआ लेकिन जिस दिन काम समाप्त हुआ उसी दिन भयंकर आंधी-तूफान की वजह से गुम्बद एक बार फिर से गिर गया। गुम्बद का बार-बार गिरना गुरुदेव के लिए अब थोड़ी चिंता का विषय बन रहा था; वह स्वयं भी बहुत आश्चर्यचकित थे।
किंतु गुरु महाराज अतुल नाथ जी की दृढ़ इच्छाशक्ति से कार्य एक बार फिर से शुरू किया गया और ईटों की 54 फुट का ऊंचा शिखर खड़ा हो गया। लेकिन यह भी सभी के आश्चर्य का कारण बन गया क्योंकि यह 54 फुट ऊंचा शिखर रातों-रात टेढ़ा हो गया था जो कि कभी भी गिर सकता था। वहीं दूसरी ओर जो कारीगर मूर्ति निर्माण के कार्य में लगा हुआ था वह जयपुर से दिल्ली आ पहुंचा और आगे से इस मूर्ति पर काम ना कर सकने की बात गुरुजी से बोल डाली। कारण पूछने पर पता चला कि जब से वह काम कर रहा है उसकी तबीयत खराब रहने लगी थी और उसने खुद को कैंसर होने तक की बात गुरुजी से बोल डाली।
गुरु महाराज अतुल नाथ जी इन घटित हो रही परिस्थितियों के विषय में सोचने लगे किंतु बाधाओं से वह विचलित नहीं हुए। उस दिन जयपुर से आए उस कारीगर को गुरु महाराज ने दिल्ली रुकने का आदेश दिया। फिर शाम होते-होते मंदिर में योनि-कुंड खुदवाने का कार्य प्रारंभ हो गया और रात को गुरु महाराज ने एक लकड़ी के चार पैरों वाले आसन को भी बनवाया और उस पर काला कंबल बिछाने का आदेश दिया। सब कार्य गुरु महाराज की इच्छा अनुसार संपन्न हो रहा था। इसी के साथ एक और कार्य मंदिर परिसर में आरंभ हुआ । गुरु महाराज ने दो मजदूरों को टेड़े हुए शिखर को रात ही में को उतरवाने का आदेश दे डाला। सुबह होते-होते दोनों ही कार्य संपन्न हो गए। सुबह जब गुरु महाराज साधना से उठे तो मूर्ति बनाने वाले कारीगर को अपने पास बुलाया और योनि कुंड की राख उसे को देते हुए बोले “जा यह राख उस शिलाखंड पर छिड़क देना और हां इस राख को तू भी प्रसाद के रूप में ग्रहण कर, जा सब ठीक होगा मूर्ति भी बनेगी और तेरी बीमारी भी खत्म हो जाएगी”। गुरु महाराज का आशीर्वाद और उनके द्वारा दी गई योनि-कुंड की राख को लेकर कारीगर जयपुर निकल पड़ा और इधर गुरु महाराज ने मंदिर का कार्य पुनः आरंभ करवा दिया। चौथी बार मंदिर के गुंबद का कार्य शुरू हुआ और इसके साथ कई सारी और अन्य घटनाएं भी घटी लेकिन उन घटनाओं का जिक्र करना मना है। 24 घंटा काम चलाया गया और गुरुदेव तब तक साधना में मौजूद रहे जब तक कि निर्माण खत्म नहीं हुआ।
मात्र 14 दिनों में ही मूर्ति तैयार होकर दिल्ली ले आई गई और इधर मंदिर भी तैयार हो गया था। अब प्रारंभ हुआ मां बगलामुखी की मूर्ति का की प्राण प्रतिष्ठा का कार्य। जिस तारीख की घोषणा गुरुदेव ने कि उसी दिन मंदिर में मूर्ति की स्थापना की गई। हर तरफ खुशी का माहौल था, भजन और कीर्तन चल रहा था और भंडारा भी। सभी कार्य विधि विधान से हो रहे थे परंतु होनी को कुछ और ही तय था। उस दिन जो हुआ जो घटना घटी हुए कोई छोटी घटना नहीं थी।
जब मां बगलामुखी की मूर्ति को उसके सही स्थान पर स्थापित करने का समय आया तो मूर्ति अपनी जगह से हिली तक नहीं। सभी ने मिलकर भरसक प्रयत्न किए किंतु मूर्ति टस से मस नहीं हुई। सभी आश्चर्यचकित थे। थक हारकर यह फैसला किया गया कि माता की मूर्ति के लिए क्रेन मंगवाई जाए। फिर क्रेन भी आ गई लेकिन होनी को तो कुछ और ही तय था। मंदिर तक आने के बाद क्रेन भी खराब हो गई। अब तो लोगों को यह बात चिंता बात ना होकर हास परिहास का विषय बनाने लगा था।
एक बार फिर गुरु महाराज तपस्या में बैठ गए। इसके बाद मूर्ति हिली भी और जो आसन मां भगवती की मूर्ति के लिए बनाया गया था वहां मूर्ति को लाकर स्थापित कर दिया गया। जैसे ही मूर्ति आसन पर स्थापित हुई मां बगला भगवती के पैर की उंगली खंडित हो गई। इतना सब देखकर गुरु महाराज का चेहरा क्रोध से तमतमा गया। ऐसा कहा जाता है कि जिस साधक को न्यास सिद्ध हो वह किसी भी प्रतिमा को प्रणाम कर दे तो वह टूट जाती है।
माँ बगलामुखी की यह मूर्ति प्रहारक-सम्मुख थी। जो भी ऐसी मूर्ति के सम्मुख आता है उसका बचना मुश्किल ही नहीं असंभव होता है। इसीलिए मूर्ति विशाल और प्रहारक-सम्मुख ना हो, बनाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है।
जिस समय मूर्ति की स्थापना हुई गुरु महाराज उसी के सामने आसन पर विराजमान थे। गुरुदेव के सामने मूर्ति आते ही खंडित हो गई। कुछ भी हो सकता था लेकिन मां अपने भक्तों के सभी कष्टों और विपत्तियों को अपने ऊपर ले लेती है। यहां भी कुछ ऐसा ही हुआ। मां भगवती पीतांबरा ने उस अपशकुन का भार अपने ऊपर ले लिया। जो पत्थर काटने को राजी नहीं था वह मुश्किल से किसी रूप में कटा और मां भगवती की मूर्ति भी बनी।
गुरुदेव की जगह कोई और होता तो शायद कारीगर बिल्कुल भी इस शिलाखंड को काटकर मूर्ति बनाने के लिए तैयार ना होते, किंतु कारीगर गुरु जी के व्यक्तित्व से परिचित थे, उनका आदर भी था और गुरु जी का भय भी। मां भगवती की मूर्ति का खंडित होना सही नहीं था। भंडारा हुआ, सब कुछ विधि-विधान से संपन्न हो गया। आसपास के बहुत से लोग भी उस उस मंदिर परिसर उस दिन आए। बहुत से से वरिष्ठ और जाने-माने कांग्रेस नेता जिनमें सज्जन कुमार भी थे, वहां मौजूद थे।
समय गुजरने लगा और गुरु जी के आशीर्वाद से उस इलाके के कॉलोनाइजर भी खूब फलने फूलने लगे। एक समय जिस जमीन की कीमत मात्र ₹400 से ₹700 प्रति गज ही थी वक़्त के साथ उस जमीन की कीमत 4000 से ₹70000 प्रति गज तक बढ़ गई।
सब खुश थे परंतु मंदिर परिसर में शांति नहीं थी। शुरू में तो लगा सब ठीक चल रहा है परंतु धीरे-धीरे चोरी चाकरी, लूटपाट आदि अपने पैर पसारने लगे। मंदिर में पूजा-पाठ भक्तों का आना तो लगा ही था लेकिन इसके अलावा भी मंदिर परिसर में कुछ गंभीर बातें भी जन्म ले रही थी। उधर कॉलोनाइजरस ने भी मंदिर की ओर दान में दी जाने वाली जमीन की बात से मुंह फेर लिया था। मंदिर के पुजारियों की भी बुद्धि भ्रष्ट होने लगी थी। कच्चे कॉलोनियां धीरे-धीरे आबाद हो रही थी। कॉलोनाइजर्स मोटा धन कमाने की होड़ में लगे हुए थे। इन सबके चलते किसी तरह समय निकल रहा था।
गुरु महाराज जी यह सब देख भी रहे थे और घटित हो रही इन घटनाओं पर विचार भी कर रहे थे। एक दिन गुरु महाराज ने मंदिर के पुजारी से एक घन (एक प्रकार का बड़ा हथोड़ा) लाने को कहा। पुजारी घन ले आया और देखते ही देखते गुरु महाराज ने मां बगलामुखी की मूर्ति को उस घन से खंडित खंडित कर दिया। पुजारी गुरु जी का यह रूप देखकर भयभीत हो गया। उसकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था किंतु वह गुरु जी से कुछ पूछ नहीं सकाता था। उस रात बहुत तेज आंधी तूफान आया। गुरुदेव का क्रोध शांत हो चुका था। गुरुदेव ने दूसरे पत्थर की मूर्ति बनाने का आदेश दिया। दूसरी ओर कॉलोनाइजरों और मंदिर प्रबंधन में युद्ध छिड़ गया और आरोप प्रत्यारोप की श्रंखला खड़ी हो गयी।
इन सबके चलते माँ भगवती की नई मूर्ति बनकर मंदिर परिषद में लाई गई और उनके उचित स्थान पर स्थापित भी कर दी गई। पुनः श्राप विमोचन किया गया। मूर्ति को तोड़ने से पूर्व गुरुदेव ने मंदिर में पंचमुंडी आसन स्थापित किया था और 3 महीने उसी मंदिर परिसर में रहकर घोर साधना की। इसका सीधा सीधा अर्थ यह है कि गुरुदेव ने पहले अपने आपको सामर्थ्यशाली बनाया क्योंकि बिना ऐसा किए माँ भगवती की उस मूर्ति को तोड़ पाना संभव नहीं था। मूर्ति पुनः स्थापित की गई जिसके लिए श्राप विमोचन आवश्यक था। इस सिद्ध पीठ की महत्ता इसके अष्टकोण निर्माण से भी जोड़ी जाती है।
अष्ट कोण – माँ भगवती बगलामुखी का यह अष्टकोण में बना मंदिर और मंदिर परिसर में बना अष्टकोण योनी-कुंड जिसके सम्मुख है पंच-मुंडी आसन। यह अष्ट-मुखी मंदिर अपने आप में तंत्र, मन्त्र, यन्त्र-हर तरह के प्रयोग हेतु प्रभाव शाली व उच्चा कोटि का स्थान है।
योनी कुंड — समस्त सृष्टि योनी से ही उत्पन्न हुयी है। विश्व का सबसे विख्यात पीठ भगवती कामख्या माँ का है। माँ स्वत: योनी रूप में यहाँ स्थापित है। माह में तीन दिवस माहवारी के अपने उस रक्त प्रसाद से विश्व भर के सभी तांत्रिक को हर तरह के कार्यों, विधि-विधान में सिद्धि प्राप्त करवाती है। योनी रूप में वैदिक काल का माँ भगवती का यह मंदिर प्राचीन है।
अतः समस्त जगत में योनि रूप में आदि स्वरूप में रहने वाली मां भगवती को ईश्वरीय सम्मान दिया गया है तथा ईश्वरीय यज्ञ जितने भी हुए हैं वह मां भगवती के योनि कुंड के रूप में ही सफल हुए हैं। गुरु महाराज ने तमाम विचार कर इस मंदिर परिसर मैं उत्तर मुखी योनि कुंड स्थापित किया। यह योनि कुंड जो कि धन-धान्य, विद्या, पुत्र प्राप्ति, ज्ञान-विज्ञान, स्वास्थ्य; सभी की सफल कामना हेतु है, मां की भगवती का आशीर्वाद से कंझावला के इस मंदिर परिसर में स्थापित है हुआ है। गुरु महाराज कहते हैं “मैंने कई राजनेताओं को देखा है इस योनि कुंड की राख का तिलक कर चुनाव में विजई होते हुए। मैं शक्ति, भोग, मोक्ष, देने वाली मां बगलामुखी योनि कुंड को शत शत प्रणाम करता हूं।
पंच मुंडी आसन – यह पंच मुंडी आसन पंच तत्वों—अग्नि, जल, वायु, आकाश, भूमि–रूप में मौजूद हैं तथा दिव्य रूप में पंच-बटेश्वर महादेव इस आसन में मौजूद हैं। तांत्रिक ग्रंथों में लिखा है कि ऐसे विरले ही साधक होते हैं जो श्मशान वासी तो होते ही हैं साथ ही उच्च कोटि के साधक भी। इस आसन पर शुद्ध रूप से बैठकर जप करने में सफलता मिलना अवश्यंभावी है। किंतु अच्छे व शुद्ध विचारों वाले संस्कारी व्यक्ति, जिस पर गुरु का विशेष कृपा हो, वो ही इस आसन पर बैठकर क्रिया कर सकता है।
पंच मुंडी अवस्था प्राप्त होने पर साधक की स्थिति शिवजी के शव-अवस्था के भांति निष्क्रिय, निश्चेष्ट तथा अहंकार रहित होकर महाशक्ति के ऊपर पूर्णरूपेण निर्भर तथा समर्पित हो जाती है। तांत्रिक ग्रंथों के अनुसार ही पंच मुंडी आसन पर विराजमान होकर साधक सर्वप्रथम महादेव फिर महाकाली तारा आदि की क्रमात्मक साधना करता है। फिर 10 महविद्या, 9 दुर्गा, 64 जोगनी, 52 भैरव आदि अशुद्ध शक्तियों का स्मरण करता है लेकिन एसा करना किसी साधारण साधक के बस में नहीं है।
यह चर्चा बहुत ही भिन्न है। ऐसा साधक ब्रह्मा, विष्णु और महेश की घोर-अघोर क्रम में साधना करता है जो कि सोच से भी परे हैं। फिर वही प्राप्तिकर्ता है, वहीं संघारक है, और वही समस्त शक्तियों का अधिकारी बन जाता है।
पंचमुंडी आसन पर सदा पंच प्रेत विराजमान रहते हैं जो उस आसन और उसके स्वामी की सदा रक्षा करते हैं। व अदृश्य रूप में रहकर एक ऐसी सृष्टि की रचना करते हैं जो अपने आप में अद्भुत है।