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आचार्य जी आप स्यम् बगलामुखी साधक और पिठाधीशवर है,प्राणियों के शरीर में एक अर्थवा नामक अतीन्द्रिय मोजुद है एसा बगलामुखी साधक आज बगलामुखी साघनाऔ में लिखते हैं में संतुष्ट नहीं अथर्वा प्राण सूत्र से कृपया आप इस पर प्रकाश डाले।

(आचार्य बालेन्दु श्री शुक्ला बनारस उ.प्र.)

महात्मा जी में क्या यह जान सकता हूँ की भगवती बगलामुखी की उपासना से व्यक्ति टेलीपैथी करने लगता है परन्तु केसै क्या यह सत्य है कृपया बताएँ ताकि में समझ सकूँ में काफ़ी समय से कोई भी साघना एसी करना चाहता हूँ जो टेलीपैथी में प्रमाणित हो।

                                                                                                                               (राजकुमार यादव दादानगर कानपुर)

भगवती बगलामुखी के विषय में मेने काफ़ी पड़ा है परन्तु में सहमत नहीं की जो विद्या स्तम्भन है वह कुंडलिनी जगाने में सहायता करेंगी वह तो मात्र शत्रु संहार कोर्ट कचहरी आदि में जिताने में सहायक है फीर सन्देश वाहिका ,टेलीपैथी ,अथर्वा प्राणसूत्र केसै। में आपको केई बार प्रश्न कर चुका हूं परन्तु आप जवाव ही नहीं देते में भी बगलामुखी उपासक हूँ दतिया,नलखेड़ा, बनखण्डी ,कामख्यां पर भी जाकर साघना करता हूँ, जल्दी आपसे मिलने भी आउगा।

                                                                                                (मदन लाल भेरू शक्ति उपासक उदयपुर राजस्थान)

 

जेसे की मेने सुना है बगलामुखी उपासक ब्रह्मास्त्र जेसी महाशक्ति और यह संहार करने में पूरी तरह से सहयोगी है क्या इसको प्राप्त करना साघना करना क्या साधक आज के इस युग में भी ब्रह्मास्त्र विद्या को प्राप्त कर सकता है और सघारं भी कीसी का भी क्या यह आध्यतम के नाम पर एक मज़ाक़ नहीं जो बगलामुखी के नाम से तांत्रिकों दुबारा….

                                                                                                                                           (सौनम् सिंह राठी चण्डीगढ़ )

लम्बे समय से इंतज़ार करते आपके प्रश्न…….

आध्यात्मिक दृष्टिकोण बगलामुखी उपासकों के अनुसार में समस्त प्राणियों के शरीर में एक अर्थवा नामक अतीन्द्रिय मोजुद है जिससे जीवन एवं उत्पन्न करने बाला प्राण सूत्र व्यवस्थित ढंग से संचार क्रम में व्यस्त रहता है, अब प्रश्नों के अनुसार शरीर देह व सूक्ष्म शरीर सृष्टि से सम्बन्ध स्थापित हमेशा कीये रहता है।अव अथर्वा की खोज करते हैं।

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

(भगवद् गीता अध्याय 15 श्लोक 7)

यह जीब मेरा सनातन अंश है वहीं इस प्रकृति में स्थित मन और पांचों इंद्रियों को आकर्षित करता है ।

कारण शरीर के होने पर अत: आत्मरूप में होने पर स्वर्ग नरक अथवा विभिन्न योनियों में भ्रमण करता है, वही कारण शरीर को ही आत्मा कहते हैं । जोकि सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का कारण है। तथा शरीर में जीव का श्वासों के द्वारा आत्मा से संपर्क बना रहता है जिससे यह सूक्ष्म जीव शरीर में रहते हुए स्थूल शरीर को क्रियाशील रखता है ।

चैतन्य यदधिष्ठानं लिंग-देहश्च य: पुन: ।

चिच्छाया लिंग-देहस्था तत्संधो जीव-उच्यते। “

अर्थात्  लिंग शरीर -दस इन्द्रियां ,पांच प्राण, मन और बुद्धि इन सत्रह तत्वों पड़ा चिदभास -इन सबके समूह को जीव कहते हैं। चक्षु:कण्ठ और हृदय ये तीन जीव के स्थान है। जाग्रत स्वप्न और सुषुप्ति ये तीन जीव के काल है। स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीन जीव के भोग्य वस्तु (शरीर)है। विश्व तेजस और प्राज्ञ ये तीन ‘जीवत्व’ के अभिमान है,जाग्रत से मोक्ष पर्यन्त जो भोग संसार है ‘जीव’ का कार्यक्षेत्र है।

रुद्राक्ष  इन्द्रवन्त:सजीषसी     हिरण्यरथा: सुविताय मन्तन।

(ऋग्वेद ४।३।२१)

अर्थ :है प्राण ! आओ !! तुम इन्द्र वन्त-विघुत् युक्त (इन्द्र अत: जो विधुत के बगेर कुछ भी नहीं वरन् आत्म -शक्ति (सेलफर पावर) से युक्त हो ,सेवा परायण हो और तुम्हारी गति हितकर और रमणीय है।

अव  वेज्ञानिको ने स्वीकार कर लिया है की प्राणवायु अत: आक्सीजन विधुत युक्त है, जबकि भारत के ऋषियों ने पूर्व में ही स्पष्ट खोज लिया था कि विधुत(रूद्र) के वगेर सृष्टि का प्रत्येक कार्य ही असम्भव है

ब्रह्म “भूतयोनि” है अर्थात् उसी से प्राणिमात्र उत्पन्न होते और उसी में लीन होते हैं। यह क्रिया किसी ब्रह्मबाह्य तत्व से नहीं होती, बल्कि जैसे ऊर्णनाभि (मकड़ी) अपने में से ही जाले को निकालती और निगलती है, जैसे पृथिवी में से औषधियाँ और शरीर से केश और लोम निकलते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म से विश्वसृष्टि होती है। अपने अनिर्वचनीय ज्ञानरूपी तप से वह किंचित् स्थूल हो जाता है जिससे अन्न, प्राण, मन, सत्य, लोक, कर्म, कर्मफल, हिरण्यगर्भ, नामरूप, इंद्रियाँ, आकाश, वायु, ज्योति, जल और पृथिवी इत्यादि उत्पन्न होते हैं (1. 1. 6 – 9, 2. 1. 3)।

स्पष्ट रूप से यह श्वास प्रश्वास की घ्राण शक्ति को वेदों में अथर्वा कहा जाता है जो की दैह में रहकर प्रत्येक कार्य के प्रति धैर्य का कारण अथर्वा ही है अत: ब्रह्माण्ड में समस्त पिण्ड ग्रह नक्षत्र आकर्षण के कारण विस्फोटक हों सकते है अगर वही अथर्वा नामक इसी तत्व को जगाकर शब्द ह्री शक्ति ब्रह्म है तथा ब्रह्म ही ब्रह्मास्त्र का रूप धारण कर सकता है ,

जो की समस्त सृष्टि में प्रलय का कारण हो सकता है और भी इस विषय को गूड़ता से इस विषय को इस तराह समझा जा सकता है, की लय यानी साउण्ड जो की दो भागों में वटा हुआ है एक वह जो हम सून सकते हैं लयआत्मक सकारात्मक उरजा है,दुसरा वह जो हम नहीं सून सकते जहां सम्पूर्ण सभ्राज्य नकारात्मक स्थापित है वही सुनने बाले और समझने वाले जो लय साउण्ड शब्दों को खोज कर संगीत आदि जो मन को शूकून देता है वही मत्रं आदि भी जो हरेक प्रकार की समस्या का निदान है,यह सब सुख शांति बैलेंसिंग की स्थापना में मोजुद है

 

ये दोनों सूक्ष्म रूप से स्थापित है मनुष्य साघना अत: तप के बल से जब अथर्वा नामक शक्ति को देह में अहसाँस करता है जिसकी स्वामिनी भगवती बगलामुखी को माना जाता है और उनकी साघना परम्परा वह भी मत्रं विधा के माध्यम से तथा वही प्रथम ब्रह्म को समझ कर जान कर अहसास कर और ब्रह्म से अत: शब्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म से ब्रह्मास्त्र तक की यात्रा ,दुसरे शब्दों में स्पष्ट है की हम ही उत्पन्न करते हैं हम भी रचेता है तव  ब्रह्म भी हम ही हुये और इस सत्य को बिना अथर्वा अत: बगलामुखी की कृपा के असम्भव है तांत्रिक लोग जो शब्द अत: मत्रं को जगाकर कीसी का भी मारण बशिकरण करने में दक्ष होते है तव स्पष्ट है जो मनुष्य रचेता है वह ब्रह्म ही है और उसका मारण वह भी शब्दों के समूह अत: शब्द ही ब्रह्मा है जिंसें प्राप्त कर ब्रह्मास्त्र तक चला सकते हो, यही नकारात्मक और सकारात्मक शब्दों की गूड़ दुनिया है,

 

मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, अथर्वा, अंगी, सत्यवह और अंगिरा की ब्रह्मविद्या की आचार्य परंपरा थी। शौनक की इस जिज्ञासा के समाधान में कि “किस तत्व के जान लेने से सब कुछ अवगत हो जाता है अंगिरा श्रृषि ने उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश किया जिसमें उन्होंने विद्या के परा और अपरा भेद करके वेद वेदांग को अपरा तथा उस ज्ञान को पराविद्या नाम दिया जिससे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है (1. 1. 4.5)।

 

जैसे ‘बालमीकि भये ब्रह्म समाना “ जिस समय बालमीकि ने ब्रह्म को प्राप्त कीया तब जब ऋषि धारा में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढ रहे रहे थे तो उन्होंने प्रणय-क्रिया में लीन क्रौंच पक्षी के जोड़े को देखा। प्रसन्न पक्षी युगल को देखकर वाल्मीकि ऋषि को भी हर्ष हुआ। तभी अचानक कहीं से एक बाण आकर नर पक्षी को लग जाता है। नर पक्षी चीत्कार करते, तड़पते हुए वृक्ष से गिर जाता है। मादा पक्षी इस शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगती है।

ऋषि वाल्मीकि यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह जाते हैं।

तभी उस स्थान पर वह बहेलिया दौड़ते हुए आता है, जिसने पक्षी पर बाण चलाया था।इस दुखद घटना से क्षुब्ध होकर वाल्मीकि ऋषि के मुख से अनायास ही बहेलिये के लिए एक श्राप निकल जाता है।

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥

अर्थ – हे निषाद ! तुमको अनंत काल तक (प्रतिष्ठा) शांति न मिले, क्योकि तुमने प्रेम, प्रणय-क्रिया में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी।

तभी ब्रह्मा जी प्रगट होकर बालमीकि को ब्रह्मा ज्ञानी होने का अहसास करातें है और दूरदर्शी होने का अहसास करा कर रामायण काव्य लिखने का आदेश देते हैं,

तभी रामायण महाकाव्य का निर्माण भी संभव हुआ।

यदक्षरैक मात्रेऽपि संसिद्धे स्पर्धतेनगर:।

रविताक्षर्येन्दुकन्दर्पशडक़रानलविष्णुभि: ।।

(नित्यापीड शिकार्णव )

एक अक्षर मात्र के सिद्ध होने पर मनुष्य (उपासक)सूर्य,गरूण,चन्द्रमा,कामदैव,शंकर,अग्नि और विष्णु इन सातों के साथ स्पर्धा करने लगता है।

वही शतपथ ब्राह्ममण ने यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में स्पष्ट प्राण को अथर्वा बताया है। इस प्रकार प्राण विद्या या जीवन-विद्या आथर्वण विद्या है,तथा गोपथ ब्राह्ममण से यह पता चलता है कि ब्रह्म शब्द भेषज और भिषग्वेद का बोधक है।

एक ऋषि, जो ब्रह्मा के पुत्र कहे जाते हैं। ये अग्नि को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाए थे,वही अथर्वा के नाम से जाने गये समांधी  अत: ब्रह्मा की प्राप्ति  के समय प्राण वायु का स्तम्भन देवी बगलामुखी की ही कृपा से होता है तब साधक बंध , योनी ,शाम्वभी ,खेचरी आदि मुद्रायें स्वत ही होने लगती है तथा मेरूदंड  से वह वह अग्नि स्वत  ही उठने लगती है तथा सहस्रार तक का मार्ग बनातीं हैं ,आद्य शक्ति का एक और अनुभव

देहऽपि मूलाधारेस्मिन् समुदेति समीरण: विपक्षो रिच्छयोत्थेन प्रयत्नेन सुसंस्कृत ।।

सव्यज्जयति तत्रैव शब्द ब्रह्मापि सर्वगमिति। ।

अत: यह कारण विन्द्वात्मक अभिव्यक्त शब्द ब्रह्म अपनी ही प्रतिष्ठा से निषपन्द हुआ इसी को परावाणी कहते हैं यही परावाक् नाभि में पहुंच कर पशयन्ती वाक् बन जाती है

यही परावाक् नाभि में पहुंचकर पश्यन्ती वाक् बन जाती है ह्रदय में पहुंच कर मध्यमा बनती है पुन: यही वदन पर्यन्त जब बायु से प्रेरित होकर पहुंचती है अर्थात् मुख मण्डल में तब वायु कण्ठादि स्थानों में व्यज्जमान अकार आदि अक्षर स्वरूप बनकर श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण योग्य कानों में सुनने योग्य)वैखरी वाग् (वाणी) बन जाती है अतएव रामायण में स्यम् भरत ने भगवती सरस्वती का स्मरण कीया तब ह्रदय से मुख में वही कण्ठ से आते समय मध्यमा से वही बैखरी बन गईं ,

 

अथर्वा प्राण सूत्र पर स्पष्ट अनुभव है कुण्डलीनि को जगाना यहा षटचक्रो का भेदन ही है

 

विष्टम्याहमिदं कृतस्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।

यह श्लोक भागवत से है जो स्थिर जगत की और संकेत करता है,

य होवाचेतद्वैं तदक्षर गार्गी ब्रह्मणा अभिवदन्ति एतत्वाक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्यचन्द्रमसो विधृतो तिष्ठत:

……..घावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठत:(वृ.४,८,८,९)

अर्थात् है गार्गि इसी अक्षर तत्व को ब्राह्मण ब्रह्मवेन्ता योगी अक्षर कहते हैं। इसी से सूर्य,चन्द्र,घौ,पृथ्वी आदि समस्त लोक अपनी अपनी मर्यादा में ठहरे हुये है।

 

बगलामुखी विज मत्रं को स्तम्भन बताया है वही पार्थिव है “वीज स्मरेत् पार्थिव” वीज कोष में इसे ही प्रतिष्ठा कला कहा है “अस्य सहस:ईशाना” सारे जगत् पर शासन है,

समस्त अन्तरिक्ष,ब्रह्माण्ड,ग्रह, नक्षत्र,सभी स्थिर है ,

अथर्वा नामक रिषी ने ही  सारे संसार में यक्षों की प्रथा चलाने-वाले ऋषि का नाम। इनका ब्याह कर्दम ऋषि की पुत्री चित्ति से हुआ था। दधीचि इनका पुत्र था ,

नकारात्मक और सकारात्मक शब्दों की गूड़ दुनिया है,

मुण्डकोपनिषद् के अनुसार सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, अथर्वा, अंगी, सत्यवह और अंगिरा की ब्रह्मविद्या की आचार्य परंपरा थी। शौनक की इस जिज्ञासा के समाधान में कि “किस तत्व के जान लेने से सब कुछ अवगत हो जाता है अंगिरा श्रृषि ने उसे ब्रह्मविद्या का उपदेश किया जिसमें उन्होंने विद्या के परा और अपरा भेद करके वेद वेदांग को अपरा तथा उस ज्ञान को पराविद्या नाम दिया जिससे अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति होती है (1. 1. 4.5)।

जैसे ‘बालमीकि भये ब्रह्म समाना “ जिस समय बालमीकि ने ब्रह्म को प्राप्त कीया तब जब ऋषि धारा में प्रवेश करने के लिए उपयुक्त स्थान ढूंढ रहे रहे थे तो उन्होंने प्रणय-क्रिया में लीन क्रौंच पक्षी के जोड़े को देखा। प्रसन्न पक्षी युगल को देखकर वाल्मीकि ऋषि को भी हर्ष हुआ। तभी अचानक कहीं से एक बाण आकर नर पक्षी को लग जाता है। नर पक्षी चीत्कार करते, तड़पते हुए वृक्ष से गिर जाता है। मादा पक्षी इस शोक से व्याकुल होकर विलाप करने लगती है।

ऋषि वाल्मीकि यह दृश्य देखकर हतप्रभ रह जाते हैं।

तभी उस स्थान पर वह बहेलिया दौड़ते हुए आता है, जिसने पक्षी पर बाण चलाया था।इस दुखद घटना से क्षुब्ध होकर वाल्मीकि ऋषि के मुख से अनायास ही बहेलिये के लिए एक श्राप निकल जाता है।

 

मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।

यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम् ॥

अर्थ – हे निषाद ! तुमको अनंत काल तक (प्रतिष्ठा) शांति न मिले, क्योकि तुमने प्रेम, प्रणय-क्रिया में लीन असावधान क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक की हत्या कर दी।

 

तभी ब्रह्मा जी प्रगट होकर बालमीकि को ब्रह्मा ज्ञानी होने का अहसास करातें है और दूरदर्शी होने का अहसास करा कर रामायण काव्य लिखने का आदेश देते हैं,

तभी रामायण महाकाव्य का निर्माण भी संभव हुआ।

यदक्षरैक मात्रेऽपि संसिद्धे स्पर्धतेनगर:।

रविताक्षर्येन्दुकन्दर्पशडक़रानलविष्णुभि: ।।

(नित्यापीड शिकार्णव )

एक अक्षर मात्र के सिद्ध होने पर मनुष्य (उपासक)सूर्य,गरूण,चन्द्रमा,कामदैव,शंकर,अग्नि और विष्णु इन सातों के साथ स्पर्धा करने लगता है।

 

वही शतपथ ब्राह्ममण ने यजुर्वेद के एक मंत्र की व्याख्या में स्पष्ट प्राण को अथर्वा बताया है। इस प्रकार प्राण विद्या या जीवन-विद्या आथर्वण विद्या है,तथा गोपथ ब्राह्ममण से यह पता चलता है कि ब्रह्म शब्द भेषज और भिषग्वेद का बोधक है।

 

एक ऋषि, जो ब्रह्मा के पुत्र कहे जाते हैं। ये अग्नि को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाए थे,वही अथर्वा के नाम से जाने गये समांधी  अत: ब्रह्मा की प्राप्ति  के समय प्राण वायु का स्तम्भन देवी बगलामुखी की ही कृपा से होता है तब साधक बंध , योनी ,शाम्वभी ,खेचरी आदि मुद्रायें स्वत ही होने लगती है तथा मेरूदंड  से वह वह अग्नि स्वत  ही उठने लगती है तथा सहस्रार तक का मार्ग बनातीं हैं ,आद्य शक्ति का एक और अनुभव

देहऽपि मूलाधारेस्मिन् समुदेति समीरण: विपक्षो रिच्छयोत्थेन प्रयत्नेन सुसंस्कृत ।।

सव्यज्जयति तत्रैव शब्द ब्रह्मापि सर्वगमिति। ।

अत: यह कारण विन्द्वात्मक अभिव्यक्त शब्द ब्रह्म अपनी ही प्रतिष्ठा से निषपन्द हुआ इसी को परावाणी कहते हैं यही परावाक् नाभि में पहुंच कर पशयन्ती वाक् बन जाती है

यही परावाक् नाभि में पहुंचकर पश्यन्ती वाक् बन जाती है ह्रदय में पहुंच कर मध्यमा बनती है पुन: यही वदन पर्यन्त जब बायु से प्रेरित होकर पहुंचती है अर्थात् मुख मण्डल में तब वायु कण्ठादि स्थानों में व्यज्जमान अकार आदि अक्षर स्वरूप बनकर श्रोत्रेन्द्रिय से ग्रहण योग्य कानों में सुनने योग्य)वैखरी वाग् (वाणी) बन जाती है अतएव रामायण में स्यम् भरत ने भगवती सरस्वती का स्मरण कीया तब ह्रदय से मुख में वही कण्ठ से आते समय मध्यमा से वही बैखरी बन गईं ,

 

अथर्वा प्राण सूत्र पर स्पष्ट अनुभव है कुण्डलीनि को जगाना यहा षटचक्रो का भेदन ही है

 

विष्टम्याहमिदं कृतस्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।

यह श्लोक भागवत से है जो स्थिर जगत की और संकेत करता है,

य होवाचेतद्वैं तदक्षर गार्गी ब्रह्मणा अभिवदन्ति एतत्वाक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्यचन्द्रमसो विधृतो तिष्ठत:

……..घावापृथिव्यौ विधृते तिष्ठत:(वृ.४,८,८,९)

अर्थात् है गार्गि इसी अक्षर तत्व को ब्राह्मण ब्रह्मवेन्ता योगी अक्षर कहते हैं। इसी से सूर्य,चन्द्र,घौ,पृथ्वी आदि समस्त लोक अपनी अपनी मर्यादा में ठहरे हुये है।

 

बगलामुखी विज मत्रं को स्तम्भन बताया है वही पार्थिव है “वीज स्मरेत् पार्थिव” वीज कोष में इसे ही प्रतिष्ठा कला कहा है “अस्य सहस:ईशाना” सारे जगत् पर शासन है,

समस्त अन्तरिक्ष,ब्रह्माण्ड,ग्रह, नक्षत्र,सभी स्थिर है ,

 

अथर्वा नामक रिषी ने ही  सारे संसार में यक्षों की प्रथा चलाने-वाले ऋषि का नाम। इनका ब्याह कर्दम ऋषि की पुत्री चित्ति से हुआ था। दधीचि इनका पुत्र था ,

 

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो अथर्वा है उसका सम्बन्ध विशेष है जो सृष्टि में अग्नि से जोड़ता है तथा अग्नि अत: विधुत के बगेर सृष्टि में कुछ भी सम्भव नहीं वही रूद्र रुद्राणी के रूप में भी परिभाषित है

 

इसी हेतु भगवती बगलामुखी प्राण अथर्वा से गहरा संबंध है। भगवती की अराधना से ही देह अत: संवेदनशील होने लगता है व साधक टेलीपैथी विधा में पारंगत हो जाता है वह दुर दराज़ मिलों के फ़ासले पर रह कीसी को भी आदेश मेसेज भेज सकता है ,जहां कीसी आधुनिक उपकरण की आवश्यकता नहीं है इसी विधि परम्परा को योगियों ने खोजा वह भी शब्दों के समूह अत: मत्रं और मात्र योग के माध्यम से

 

अथर्वा से पिताम्बरा भगवती बगलामुखी से सम्बन्ध अत: उसी प्रकार है, अथर्वा शब्द का आधुनिकीकरण करने का प्रयास है ,हालांकि सृष्टि में उसी आध्यात्मिक शक्ति के अनेक रूप हैं परन्तु मूल बहीं है यहा स्पष्ट करदें की ऋषियों ने वेद पुराण उपनिषदों में पूर्व में ही लिख दिया है कि स्यम् महादेव जगत पिता और भगवती पार्वती को जगत् की माता है , तथा पुराणोंक्त भगवती पार्वती ने घौर तप कर मात्र शिव को ही प्राप्त नहीं कीया अपितु शिव के सान्निध्य में स्यम् में आद्यशकती को भी स्थापित कर सम्पूर्ण सृष्टिकर्ता की वही जन्म दाता है यह भी सृष्टि में जन्म लेकर और ख़ुद को जागृत कर सिद्ध कर दिखाया पार्वती ही प्रकृती है।काली तारा षोडशी दसो दिशाओं में दस महा विघा के रूप में सृषटी में जब भी संकट आये तव स्यम् ने भिन्न-भिन्न रूप में समय समय पर अवतरण होकर निदान कीया।

अजामेकां लोहि त-शुक्ल-रूपां वह्रो:

प्रजा-सृज मानां स्वरूपा: ।

(यजुर्वेद शतपथ ब्राह्मण)

अर्थात् “वह आध- शक्ति प्रकृति( पार्वती) देवी एक ही है और उसी के यह लोहित याने रजोगुण,ब्रह्मा या इलेक्ट्रॉन ,शुक्ल याने सतोगुण या प्रकाशक- तत्व विष्णु या प्रोटोन.कृष्ण याने तमोगुण,अन्धकार,रूद्र या न्यूट्रॉन-तीन गुण है। इन तीनों के तारतम्य से वही अजा (प्रकृति) अगणित प्रज्ञा याने-द्रव्यों,पदार्थों जीव- जन्तुओ को रचती है।

 

वही शक्ति सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कुंण्डलिनी के रूप में स्थापित है उसी की ईक्छा वेदों की गुंज ” एको अहं बहुस्याम ” अर्थात् मैं एक हूँ – अनेक हो जाउ और बहीं स्तिथि स्पष्ट है उत्पत्ति हो रही है वही सृष्टि में सांकेतिक है।

 

यह सत्य है की भगवती बगलामुखी का आह्वान कुंण्डलिनी जाग्रण में विशेष सहायक है तथा शत्रू स्तम्भन वह समस्त इंद्रियों को स्तम्भन करने में पूर्ण तहा: सहायक है और वही ध्यान ,समाधि में बाधक नकारात्मक ध्वनि को भी जब साधक समाधि को महत्व देता है और स्वतः की इन्द्रिया समांधी में बाधक हैं तब वह उन्हें भी स्तम्भन करने में सहायक हो जाती है, फीर शत्रू कीतनी ही दूरी पर क्यों ना हो बगलामुखी प्रहारक मत्रं से शत्रू की बुद्धि,विचार,नेत्र,नख, केश शत्रू की समस्त गति को रोकने में सहायक है,

बगलामुखी शक्ति के माध्यम ,अत: साघना से साधक अपने विचार दुसरे के मष्तषक में स्थापित कर सकता है टेलीपैथी का प्रयोग करने में दक्ष हो जाता है।

 

प्रशन -ये है की ये वात क्षोभ क्या है…?

अब वात-क्षोभ अत: वह प्रचण्ड प्रलय जो अस्मय नकारात्मक और सकारात्मक शब्दोच्चार के कारण प्रलय हेतु उत्पन्न होता है , जिंसें समाप्त हेतु आसुरी शक्तियों का सघारं आवश्यक है जो जीवन में सुख,शांति हेतु आवश्यक है,इसी हेतु यह स्पष्ट है

‘तयोर्विनष्ट ,एकर्स्मिस्तौ द्वावपि विनशन:।।

अर्थात्:-यदि वातक्षोभ रोक दिया जाय तो मन का क्षोभ भी रूक जायेगा।

 

फीर इस शक्ति को अथर्वा प्राण सूत्र के नाम से क्यों नहीं स्वीकार कीया जा सकता क्योंकि अथर्वा नामक ऋषि

ने ही स्यम स्वर्ग से विधुत को धरती तक लाने में सफल हुए और अथर्ववेद में में स्पष्ट अभिचार कर्म व अनेकों असाध्य रोगों से मुक्ती (अथर्ववेद में रोगों को असुर माना है)के तमाम उपचार जो है वह भी मंत्रों सें

 

………………………आचार्य

ब्राह्मण)

अर्थात् “वह आध- शक्ति प्रकृति( पार्वती) देवी एक ही है और उसी के यह लोहित याने रजोगुण,ब्रह्मा या इलेक्ट्रॉन ,शुक्ल याने सतोगुण या प्रकाशक- तत्व विष्णु या प्रोटोन.कृष्ण याने तमोगुण,अन्धकार,रूद्र या न्यूट्रॉन-तीन गुण है। इन तीनों के तारतम्य से वही अजा (प्रकृति) अगणित प्रज्ञा याने-द्रव्यों,पदार्थों जीव- जन्तुओ को रचती है।

 

वही शक्ति सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कुंण्डलिनी के रूप में स्थापित है उसी की ईक्छा वेदों की गुंज ” एको अहं बहुस्याम ” अर्थात् मैं एक हूँ – अनेक हो जाउ और बहीं स्तिथि स्पष्ट है उत्पत्ति हो रही है वही सृष्टि में सांकेतिक है।

 

यह सत्य है की भगवती बगलामुखी का आह्वान कुंण्डलिनी जाग्रण में विशेष सहायक है तथा शत्रू स्तम्भन वह समस्त इंद्रियों को स्तम्भन करने में पूर्ण तहा: सहायक है और वही ध्यान ,समाधि में बाधक नकारात्मक ध्वनि को भी जब साधक समाधि को महत्व देता है और स्वतः की इन्द्रिया समांधी में बाधक हैं तब वह उन्हें भी स्तम्भन करने में सहायक हो जाती है, फीर शत्रू कीतनी ही दूरी पर क्यों ना हो बगलामुखी प्रहारक मत्रं से शत्रू की बुद्धि,विचार,नेत्र,नख, केश शत्रू की समस्त गति को रोकने में सहायक है,

बगलामुखी शक्ति के माध्यम ,अत: साघना से साधक अपने विचार दुसरे के मष्तषक में स्थापित कर सकता है टेलीपैथी का प्रयोग करने में दक्ष हो जाता है।

 

प्रशन -ये है की ये वात क्षोभ क्या है…?

अब वात-क्षोभ अत: वह प्रचण्ड प्रलय जो अस्मय नकारात्मक और सकारात्मक शब्दोच्चार के कारण प्रलय हेतु उत्पन्न होता है , जिंसें समाप्त हेतु आसुरी शक्तियों का सघारं आवश्यक है जो जीवन में सुख,शांति हेतु आवश्यक है,इसी हेतु यह स्पष्ट है

‘तयोर्विनष्ट ,एकर्स्मिस्तौ द्वावपि विनशन:।।

अर्थात्:-यदि वातक्षोभ रोक दिया जाय तो मन का क्षोभ भी रूक जायेगा।

 

फीर इस शक्ति को अथर्वा प्राण सूत्र के नाम से क्यों नहीं स्वीकार कीया जा सकता क्योंकि अथर्वा नामक ऋषि

ने ही स्यम स्वर्ग से विधुत को धरती तक लाने में सफल हुए और अथर्ववेद में में स्पष्ट अभिचार कर्म व अनेकों असाध्य रोगों से मुक्ती (अथर्ववेद में रोगों को असुर माना है)के तमाम उपचार जो है वह भी मंत्रों सें