_*”गुरू” कोई “व्यक्ति” नहीं, कोई “शरीर” नहीं, “गुरू” एक “तत्व” है, एक “शक्ति” है। “गुरू” “सच्चा” “शब्द” हैं। “गुरू” “सच्चा” “नाम” हैं। “गुरू” एक “भाव” है, “गुरू” “श्रद्धा” है। “गुरू” “समर्पण” है। आपका “गुरू” आपके “व्यक्तित्व” का “परिचय” है। “कब” “कौन”, “कैसे” आपके लिए “गुरू” “साबित” हो यह आप की “दृष्टि” एवं “मनोभाव” पर “निर्भर” करता है। “गुरू” “प्रार्थना” से मिलता है। “गुरू” “समर्पण” से मिलता है, “गुरू” “दृष्टा” भाव से मिलता है।
एक समय गुरू देव ने अचानक अपना निर्णय सुनाया कि उनकी इक्छा है कि शीघ्र-अति भगवती घूमावती महायज्ञ का प्रारम्भ किया जाए परन्तु धन के अभाव में यह कैसे संभव हो? उनकी चिंता बड़ गई पर एक बार जो ठान लिया फिर कुछ भी हो जाये उसे कोई रोक नहीं सकता।
गुरू देव को किसी ने पुत्र होने पर 8 तौला स्वर्ण के एक कड़ा-कुंडल, अंगूठी, और चेन दी थी जो उन्होंने स्वयं मैहरोली के बाज़ार में एक सुनार की दुकान पर जाकर बेच कर यज्ञ के लिए पैसे जुटाये और दुसरे दिन ही टेन्ट लगवा दिया। गुरू देव लाल बहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ भी गये और वहाँ आचार्यों से निवेदन किया कुछेक छात्र यज्ञ मे सहयोग दें जिस से इस यज्ञ को पूर्ण किया जा सके परन्तु कोई तैयार नहीं हुआ
अब गुरूदेव ने उनके संपर्क में जितने भी कर्मकांडी ब्राह्मणों थे उन्हें खबर भेजी कि ज़्यादा धन की आवश्यकता लेकिन फिर भी जितना धन चाहिए था उतना एकत्रित नहीं हो पाया। तमाम प्रयासों के उपरांत भी कोई तैयार ही नहीं हुआ। कुछ साधकों के लिए धूमावती नाम ही नया था तो उनसे कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ थी। यहाँ तक की जो शमशानों में बैठे हुए अघोर साघना करने वाले अघोरी भी तैयार नहीं हुए। तमाम प्रयासों के उपरांत ना कर्मकाण्डी, ना ही तांत्रिक; सब ने स्पष्ट मना कर दिया। फिर भी गुरुदेव प्रयासों में लगे रहे।
गुरू देव से जब किसी ने पूछा ये लोग हमे क्यों मन कर रहे हैं तब गुरू देव ने बोला कि यही तो ज़रूरी है ताकि ईनको भी कोई शिकायत ना रहे कि हमें एसे यज्ञ के लिए एक बार बोला तक नहीं।
इसके पश्चात जब यज्ञ आरंभ हुआ तो तब गुरुदेव ने जितने भी शिष्य व सेवक प्रणाम करने वाले, यहाँ तक की गाँव के बच्चों तक को दीक्षित कर सभी को यज्ञ में बैठा दिया। कुछ गुरू देव के शिष्य भी थे जो अच्छें साधक थे, वे भी दूर-दूर से आ गये और जिसे भी खबर मिली वो आ गए। तीन दिनों में ही गुरूदेव ने सभी तैयारियां कर लीं जबकि पहले कोई तयारी नहीं थी। फिर अचानक कहाँ कहाँ से उठकर लोग आ गये। भीड़ देख स्थानीय लोग हैरान थे।
दीक्षा लेकर लोगों ने ख़ुद को धन्य पाया। जो लोग दीक्षित नहीं थे उन्हें दीक्षित किया; कोन किस जाति का था , कोई लेना देना नहीं अपितु भावुक होकर व ख़ुशी और उल्लास में सभी ब्राह्मण थे।
इसके उपरांत रात्रि में गुरू देव शमशान पहुँचे और वहां मुर्दा-भस्म स्नान कर पूरी रात्रि साधना में रहे व सुबाह पूजन पश्चात विनयोग न्यास का महत्व भी बताया तथा किस प्रकार संसार वर्णमयी उत्पन्न हुआ है तथा मत्रं उच्चारण को एक लय मैं करने के लिये गुरु देव ने 18 लोगों की के दो समूह बनाये जो सुबह शाम आह्वान और दसांश आहुतीया, आरती आदि कर देवी से प्रार्थना करते रहे। इसके पश्चात समापन व दुसरे समूह रात्रि नौ बजे सरसों के तेल से अभिषेक कर फिर शमशान आदि की भस्म से स्नान कर भगवती का घौर आहवान् और यह प्रक्रिया सुबह 4 बजे तक निरन्तर चली। पुन फिर आह्वान एवं यज्ञ। इस तराह 24 घंटे गुरू महाराज दोनों समूहों के साथ यज्ञ और आह्वान में संलग्न रहते देख सब हैरान थे।
चौधरी प्रैम सिंह को मालूम हुआ वहा से से भी सहयोग प्राप्त हुआ. बी.जे.पी के नेता सुधीर सिंह, शिवशैना से भी कई नेता जैसे गिरीश भारद्वाज व राम सोनी आदि नेताओं का आना जाना शुरू हो गया। गुरू देव मुश्किल से बैनर लगाने को तैयार हुए। गुरू देव ने सबसे मिलने के लिए मना कर दिया। घण्टो नेता तम्बू में बैठ इंतजार करते रहते थे परन्तु गुरूदेव के अपने ही नियम थे। जब एक बार आसान में बैठे तो 4 घंटे के पश्चात ही फिर समाधि खुलेगी। फिर कोई भी हो। इस पूरी प्रक्रिया में शिष्य भी लगन से लगें रहते थे।
समय के साथ हर दिन अलग-अलग अनुभव एवं अनुभूतियों होना भी प्रारंभ हो चुकी थीं और साथ ही अब साधक भी आनंद लेने लगे थे। स्थानीय प्रतिष्ठित लोग जेसे दादा भीम, दादी रेशम और अत्यधिक खर्च करने वाले श्री ज्ञान सिंह जी, दादा मान और भी BJP के युवा नेता योगेन्द्र सिंह, आदि कई लोगों ने इस यज्ञ में बड़-चड़ कर हिस्सा लिया परन्तु गुरू देव ने स्पष्ट कर दिया की जीतना हो सके प्रचार से बचें।
गुरू देव ने ना जाने ऐसा क्या कर दिया की हर यज्ञ कर्ता अब जाप में बैठते ही अनूठा अनुभव करने लगा जेसे कि वह पहाड़ीयो में हो और ग्रेनेड फेंक रहा हो। चारों तरफ़ गोलीबारी हो रही हो तो कोई स्टेनगन चला रहा हैं। इस तरह एक अजीब व गंभीर वातावरण का ही निर्माण हो चुका था। जितने लोगों ने साधना में भाग लिया था सभी महावीर हो निर्भयता से साधना में जुट स्वयं को विराट देह में अनुभव कर रहे थे तो कई लोगों ने स्वयं को रण भूमी में लड़ते हुए अनुभूति की। विशेषकर कर रात्रि के यज्ञों में भगवती को अनुभव कर उनके घौर अट्टहास को कई शिष्यों ने अनुभव किया। आस-पास में रहने वाले लोगों को भी अनेकों हैरान करने वाली अनुभूतियों ने हैरत में डाल दिया जेसे कभी गुरू देव स्वयं ही विशाल देह के साथ महादेव का रूप धारण किए हुए खड़े हैं तो कभी क्रोध में तमतमा रहैं है और कभी युद्ध भूमि में युद्ध कर रहे है।
गुरू देव प्रति दिन ही शमशान से ताज़ा भस्म मंगाकर प्रथम स्नान करते और भगवती जो ऐक गोल पत्थर के रूप में स्थापित थीं। बाद में अनेकों घटनाओं के पश्चात गुरू देव ने उस शिला को कहीं और ही स्थापित कर दिया।
एक दिन तो मध्य में कुछ ऐसा हुआ कि गुरू देव से तत्रं पर कोई चर्चा हुई तो गुरू देव ने कोई प्रयोग कराया जिसके कारण जितने लोग भी उस चर्चा में थे सभी प्रभावित हो गये। कोई रोने लगा तो, कोई हंसने लगा तो कोई नाचने लगा। तब स्वयं दादा भीम ने ही गुरूदेव से प्रार्थना की कि गुरू महाराज ये गाँव हैं फिर ऐसा कुछ होगा तो गाँव के लोग ही डर जाएंगे अत: इन क्रियाओं को रोकने की कृपा करें।
गुरू देव ने कहा निश्चित रहें में कुछ नहीं करूँगा और ना यहाँ कुछ होगा. गुरू देव का एक शिष्य जो काफ़ी धनवान और अहंकारी भी. जब गुरू देव दिल्ली आये थे तब उसने भैरव साधना कराईं और कृपा से अत्यधिक धनी हो गया तो अहकारं भी बढ़ गया. शायद उसे गुरू देव से उम्मीद थी कि गुरू देव उसका विशेष सम्मान करेंगे, परन्तु गुरू देव के लिये सभी बराबर थें अत: गुरू देव अपने आसान पर साधना-समाधि में ही रहे. गुरू देव पहले ही दिन से चापलूसी से दूर थे, आऔ प्रणाम करो, और राम राम-बस यही पाण्डेय जी को नहीं पच पाया और वहाँ सभी के सामने कुछ बड़े शब्द बोल कर चले गये. गुरू देव को ख़बर मिली उन्होंने कहा चलो कोई नहीं भूल जाऔ. फिर वह हुआ जिसकी उम्मीद नहीं की जा सकती.
सुबह ही पाण्डेय जी की फ़ैक्ट्री में भयंकर आग लग गयी और चंद घंटों में ही अग्नि नें पाण्डेय जी को बर्बाद कर दिया. करौड़ो का नुक़सान हो चुका था, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया में कपड़े की फ़ैक्ट्री प्रचण्ड अग्नी सें तहस नहस हो चुकी थी।
दुसरे ही दिन पाण्डेय जी पैरों में छमा याचना हेतु आ गए. गुरू देव पाण्डेय जी को सब ठेक हो जाने का आशीर्वाद दे दिया. यह गुरू देव का विशाल ह्रदय का प्रत्यक्ष प्रमाण था।
अब हम लोग काफ़ी मेंहनत कर रहे थे और गुरू देव लगभग 24 घंटे ही साधना में रहते थे. अन्ततः हम कारगिल मैं युद्ध जीतने लगे और ख़ुशी की लहर सभी शिष्यों के चेहरों पर थी फिर वो दिन भी आया जब साघना का यज्ञ की पूर्णाहुति थी और वहीँ दूसरी और कारगिल युद्ध में जीतने की उम्मीद बढती जा रही थी.
उस दिन २३ जुलाई थी और यज्ञ का भी समापन था. ११ बजे के लगभग भयंकर आँधी आई परन्तु टेन्ट नहीं उखड़ा और भयंकर बारिश हुई, टेन्ट पानी से भर गया. यही यज्ञ की सफलता थी. उस दौरान दो- चार दिन पूर्व से ही युद्ध-विजय के संदेश न्यूज़ पेपरों में मिल रहे थे. यज्ञ की पूर्णाहुति के समय युद्ध के समापन और विजयी के समाचार के साथ प्राकृतिक और दिव्य अदभूद संदेश स्पष्ट साधको को प्राप्त हुये।
यज्ञ पश्चात पड़ौसी के एक बुजुर्ग ने हवनकुंड को तोड़ दीया. जिस दिन इसने एसा किया उसके ऐक घण्टें के अंदर ही उसका भयानक एक्सीडेंट् हुआ और हाथ पैर टूट गये तो किसी के पशुओं को नुक़सान अत: गुरू देव ने पुनः प्रार्थना कर देवी को वहाँ से कहीं और ले जा कर स्थापित किया।
गाँव में गुरू देव ने यज्ञ के उपरांत अनेकों घटती विचित्र घटनाओं को देखते और घटतें देख शांति आवश्यक थी. इस हेतु देवी की स्थापना मुश्किल ही थीं जिसके दर्शन से सुहागन स्त्रियों के विधवा का भय देख अव मुक्ती भी आवश्यक थी।
।। नशा चढ़े गुरु प्रेम का ।।
।। बिसरे तन, मन, का भान ।।
।। सुख दुःख की चिन्ता नहीं ।।
।। हर पल रहे गुरु का ध्यान ।।